Zindgi ज़िन्दगी संग्रह मिल गया था अभी पूरा नहीं पढ़ा है पढ़ कर अपनी राय पत्र द्वारा भेजूंगा निश्चिन्त रहें आपका लेखन पठन निर्बाध रहे इन्हीं शुभकामनाओं के साथ --योगेन्द्र मौदगिल
औरत बिकती है जज़्बातों से, यही उसका असल दाम है. विपिन जी आपका ब्लॉग देखा क्या सुन्दर लिखा और प्रस्तुत किया है. उपरोक्त पंक्तिया झझकोर के रख देने वाली हैं बस कवि जैसा हृदय होना चाहिए,आपसे मिल कर असीम प्रसन्नता हुई है .धन्यवाद ब्लॉग की दुनिया जिसने आप जैसे साहित्य प्रेमियों के दर्शन करा दिए . लिखते रहिये ख़ुशी मिलती है
भाई विपिन जी आपने इतने सलीके की बात की है की मक्खन से भी संतोष नही हुवा ! आपने मक्खन से भी छाछ वाला हिस्सा जलाकर उसे देशी घी बना डाला ! भई बहुत सुंदर और यथार्थवादी कविता ! शुभकामनाए !
भाई आपका प्रयास अच्छा है. जानकर हर्ष हुआ कि आप पाठ्य-कर्म में भी हैं और आपकी कविता छात्र पढ़ते ही होंगे! चलिए अब उम्मीद है कि हम जैसे लोग भी पाठ्य-कर्म में शामिल हो ही जायेंगे.
17 comments:
ग़रीब किसान, क्या है नशा?
उसके लिए तो फसल जाम है
औरत बिकती है जज़्बातों से,
यही उसका असल दाम है.
" kitne sunder abheeveyktee hai, kehna mushkil hain, bhut sunder hai"
gareebo ke liye kuch nahi badalta .....
नमस्कार जी "
आपके ब्लॉग के काफ़ी सारे पोस्ट पढ़े ,बहुत रुचिकार लेखन है
ब्लॉग्स आपके लेखन की सक्रियता के लए आपको बहुत बधाई
कल बेंगलोर के धमाके से मान बड़ा आहत हुआ
इसी को लेकर एक आव्हान के तौर पर आज मैने एक शेर पोस्ट किया है
" इस धरा पर दोस्तों फिर गिद्ध मंडराने लगे
मौत का सामान फिर जुटने लगा ,कुछ कीजिए ...."
शेष रचना के लिए देखें
http://mainsamayhun.blogspot.com
प्रतिक्रिया की प्रतीक्षा मे
डॉ.उदय 'मणि ' कौशिक
औरत बिकती है जज्बातो से ,
यही उसका असल दाम है।
क्या खूब लिखा है।
बधाई ।
vipin ji, kya baat hai. sundar likh rhe hai. jari rhe.
औरत बिकती है जज़्बातों से,
यही उसका असल दाम है.
यथार्थ लेखन के लिये बधाई.
भाई दिल निकाल के रख दिया हे आप ने इस कविता मे, एक एक लाईन कितना बडा सच साथ लिये हे, धन्यवाद
Zindgi
ज़िन्दगी संग्रह मिल गया था
अभी पूरा नहीं पढ़ा है
पढ़ कर अपनी राय पत्र द्वारा भेजूंगा निश्चिन्त रहें
आपका लेखन पठन निर्बाध रहे
इन्हीं शुभकामनाओं के साथ
--योगेन्द्र मौदगिल
bahut badhiyaa likhaa-
पहले भी यही था वजूद,
तेरा आज भी ग़ज़ल नाम है,
ग़रीब किसान, क्या है नशा?
उसके लिए तो फसल जाम है,
औरत बिकती है जज़्बातों से,
यही उसका असल दाम है.
विपिन जी आपका ब्लॉग देखा क्या सुन्दर लिखा और प्रस्तुत किया है. उपरोक्त पंक्तिया झझकोर के रख देने वाली हैं बस कवि जैसा हृदय होना चाहिए,आपसे मिल कर असीम प्रसन्नता हुई है .धन्यवाद ब्लॉग की दुनिया जिसने आप जैसे साहित्य प्रेमियों के दर्शन करा दिए . लिखते रहिये ख़ुशी मिलती है
वही चाँद, वही सितारे है,
फिर वही सजल शाम है,
बधाई...
भाई विपिन जी आपने इतने सलीके की
बात की है की मक्खन से भी संतोष नही
हुवा ! आपने मक्खन से भी छाछ वाला
हिस्सा जलाकर उसे देशी घी बना डाला !
भई बहुत सुंदर और यथार्थवादी कविता !
शुभकामनाए !
भाई आपका प्रयास अच्छा है.
जानकर हर्ष हुआ कि आप पाठ्य-कर्म में भी हैं और आपकी कविता छात्र पढ़ते ही होंगे!
चलिए अब उम्मीद है कि हम जैसे लोग भी पाठ्य-कर्म में शामिल हो ही जायेंगे.
औरत बिकती है जज्बातो से ,
यही उसका असल दाम है।
क्या खूब लिखा है।
bhut sunder hai
भावपूर्ण सार्थक कविता!
Aaj aapki bohot saaree kavitaayen padh daali...kis, kis ke baareme likhun??"Gazal" to behad achhee lagee...waise sabhee behtareen hain!
Shama
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