Saturday, October 17, 2020

कुछ खिड़कियों और दरवाजों का एक घर हूँ,

पूरा रास्ता कटा मगर अधूरा सफर हूँ,

मैं तमाम उम्र देता रहा अब हुआ बेकार,

अपने ही आंगन का बूढ़ा हुआ शजर हूँ,

सारे शहर की नज़रे मुझ पर घूम रही थी,

मुझे क्या मालूम था मैं ही आज की खबर हूँ,

क्या वक़्त है दाने दाने को मोहताज़ हूँ,

खेत बंजर है और मैं पसीने से तर हूँ।।